बचपन इंसानी ज़िन्दगी का सबसे हसीन पल होता है चंचलता ललकता जिज्ञासुकता और शिक्षा हर एक बच्चे का मौलिक अधिकार लेकिन सभी का बचपन ऐसा हो ये ज़रूरी नही क्योंकि हाल की स्थिति और आंकड़े इसी ओर इशारा कर रहे हैं. बच्चे, जो देश का भविष्य कहे जाते है वो आज सड़क पर भीख मांगते नज़र आ रहे हैं, ये परिस्थिति कहीं और की नहीं राजधानी दिल्ली की है. आंकड़े बताते है दिल्ली में 30000 (The National's Data) बच्चे सड़को पर भीख मांगते है और पूरे भारत में इनकी संख्या 400000 के करीब है। ये आंकड़े बढ़ते जा रहे है इन बच्चों से बात करने पर पता चलता है की इन में से कुछ बच्चों को दूसरे शहरों से लाया जाता है और भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है और कुछ इसलिए मांगने को मजबूर है की उनकी माली हालत बहुत कमज़ोर है. देश भर में हर दिन मे बच्चे की गायब होने की रिपोर्ट की जाती है जिसमे 50 फीसदी की रिपोर्ट ही राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्योरो (NCRB) को दी जाती है ,राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल 40000 बच्चों का अपहरण होता है, जिनमे 11000 बच्चों का कोई पता नही चलता. साल 2011 में अपहरण के 15284 मामले दर्ज किये गए, जो कि साल 2010 की अपेक्षा से 43 % बढ़ा मिला। ये मामला भीख मांगने तक सीमित नहीं है. इन बच्चो को देह व्यापार, बंधुवा मजदूरी, बाल मजदूरी, अंग प्रत्यारोपण तक करने को मजबूर किया जाता है. साल 2011 में बाल तस्करी के ऐसे 3517 मामले सामने आए. जिसमें बच्चो के साथ देह व्यपार, बाल विवाह, अंग प्रत्यारोपण की बातें सामने आई और भारत की 10 फीसदी मानव तस्करी ही अंतर्राष्ट्रीय है, बाकि, 90 फीसदी तस्करी देश के अंदर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में की जाती है। हर साल लगभग 44000 बच्चे इन तस्कर गिरोह के हाथ आ जाते है। इसमें वो बच्चे भी शामिल है, जिनके परिवार माली हालत की वजह से अपने बच्चों को बेंच देते है और वो भी बच्चे, जो घर से भागते है। आंकड़े से हम अंदाज़ा लगा सकते है कि ये हकीकत कितनी दर्दनीय और भयवाह है। ये दर्द सिर्फ हमारे देश का नहीं बल्कि समूचे विश्व का है, लेकिन भारत में एक बीमारी की तरह फ़ैल रहा है, रिपोर्ट ये भी कहती है सबसे ज्यादा बाल मज़दूर भारत में है, जिनकी उम्र 14 साल से भी कम है। जबकि इस पर देश की उच्चतम न्यायालय ने सख्त संदेश के साथ रोक लगाई है। फिर भी देश में 12.5 करोड़ बाल मज़दूर काम कर रहे या कराए जा रहे है. 21 फीसदी बच्चे सिगरेट और 17 फीसदी बीड़ी फैक्ट्री में काम करते है और 15 फीसदी घरेलू नौकर बना के रखे जाते है, वहीँ बाकी बच्चे कूड़ा बीनने,और पटाखा और कालीन फैक्ट्री आदि जैसी जगहों पर काम करते है। कानून होने के बावजूद अगर आंकड़े इतने भयानक है तो स्थिति अच्छी नहीं है और इसके लिए सरकार से लेकर समाज तक को सोचना होगा, क्योंकि रिपोर्ट की माने तो मानव तस्करी तीसरा ऐसा संगठित अपराध है, जो कुछ ही समय में हथियार और नशीली दवाइओ जैसे 'संगठित अपराध' को पीछे छोड़' देगा. जिस तरह हम आज पर्यावरण, अर्थवयवस्था और देश सुरक्षा को लेकर चिंतित है और अनेकों कदम उठा रहे है. ठीक उसी तरह हमे इस मुद्दे पर भी गंभीर होना पड़ेगा। सरकार और अन्य कई संस्था इस संजीदा मुद्दे पर अनेकों प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास नाकाफी है और समाज को भी अपने ज़िम्मेदारी समझनी होगी। अगर इस धंधे में शामिल लोग को छोड़ दें, तो हम जैसे कई पढ़े लिखे लोग, अपने घरो और फक्ट्रियों में बच्चो से जबरन काम करा रहे है. हमारा देश तो ऐसा है, जिसमें बच्चों को भगवान रूप माना जाता है और अपने भगवान के साथ ऐसा दुर्यवव्हार कोई कैसे कर सकता है? सोचना होगा ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए सरकार या समाज, क्योंकि इस स्थिति के दोनों बराबर के भागीदार नज़र आ रहे है।
बचपन इंसानी ज़िन्दगी का सबसे हसीन पल होता है चंचलता ललकता जिज्ञासुकता और शिक्षा हर एक बच्चे का मौलिक अधिकार लेकिन सभी का बचपन ऐसा हो ये ज़रूरी नही क्योंकि हाल की स्थिति और आंकड़े इसी ओर इशारा कर रहे हैं. बच्चे, जो देश का भविष्य कहे जाते है वो आज सड़क पर भीख मांगते नज़र आ रहे हैं, ये परिस्थिति कहीं और की नहीं राजधानी दिल्ली की है. आंकड़े बताते है दिल्ली में 30000 (The National's Data) बच्चे सड़को पर भीख मांगते है और पूरे भारत में इनकी संख्या 400000 के करीब है। ये आंकड़े बढ़ते जा रहे है इन बच्चों से बात करने पर पता चलता है की इन में से कुछ बच्चों को दूसरे शहरों से लाया जाता है और भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है और कुछ इसलिए मांगने को मजबूर है की उनकी माली हालत बहुत कमज़ोर है. देश भर में हर दिन मे बच्चे की गायब होने की रिपोर्ट की जाती है जिसमे 50 फीसदी की रिपोर्ट ही राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्योरो (NCRB) को दी जाती है ,राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल 40000 बच्चों का अपहरण होता है, जिनमे 11000 बच्चों का कोई पता नही चलता. साल 2011 में अपहरण के 15284 मामले दर्ज किये गए, जो कि साल 2010 की अपेक्षा से 43 % बढ़ा मिला। ये मामला भीख मांगने तक सीमित नहीं है. इन बच्चो को देह व्यापार, बंधुवा मजदूरी, बाल मजदूरी, अंग प्रत्यारोपण तक करने को मजबूर किया जाता है. साल 2011 में बाल तस्करी के ऐसे 3517 मामले सामने आए. जिसमें बच्चो के साथ देह व्यपार, बाल विवाह, अंग प्रत्यारोपण की बातें सामने आई और भारत की 10 फीसदी मानव तस्करी ही अंतर्राष्ट्रीय है, बाकि, 90 फीसदी तस्करी देश के अंदर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में की जाती है। हर साल लगभग 44000 बच्चे इन तस्कर गिरोह के हाथ आ जाते है। इसमें वो बच्चे भी शामिल है, जिनके परिवार माली हालत की वजह से अपने बच्चों को बेंच देते है और वो भी बच्चे, जो घर से भागते है। आंकड़े से हम अंदाज़ा लगा सकते है कि ये हकीकत कितनी दर्दनीय और भयवाह है। ये दर्द सिर्फ हमारे देश का नहीं बल्कि समूचे विश्व का है, लेकिन भारत में एक बीमारी की तरह फ़ैल रहा है, रिपोर्ट ये भी कहती है सबसे ज्यादा बाल मज़दूर भारत में है, जिनकी उम्र 14 साल से भी कम है। जबकि इस पर देश की उच्चतम न्यायालय ने सख्त संदेश के साथ रोक लगाई है। फिर भी देश में 12.5 करोड़ बाल मज़दूर काम कर रहे या कराए जा रहे है. 21 फीसदी बच्चे सिगरेट और 17 फीसदी बीड़ी फैक्ट्री में काम करते है और 15 फीसदी घरेलू नौकर बना के रखे जाते है, वहीँ बाकी बच्चे कूड़ा बीनने,और पटाखा और कालीन फैक्ट्री आदि जैसी जगहों पर काम करते है। कानून होने के बावजूद अगर आंकड़े इतने भयानक है तो स्थिति अच्छी नहीं है और इसके लिए सरकार से लेकर समाज तक को सोचना होगा, क्योंकि रिपोर्ट की माने तो मानव तस्करी तीसरा ऐसा संगठित अपराध है, जो कुछ ही समय में हथियार और नशीली दवाइओ जैसे 'संगठित अपराध' को पीछे छोड़' देगा. जिस तरह हम आज पर्यावरण, अर्थवयवस्था और देश सुरक्षा को लेकर चिंतित है और अनेकों कदम उठा रहे है. ठीक उसी तरह हमे इस मुद्दे पर भी गंभीर होना पड़ेगा। सरकार और अन्य कई संस्था इस संजीदा मुद्दे पर अनेकों प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास नाकाफी है और समाज को भी अपने ज़िम्मेदारी समझनी होगी। अगर इस धंधे में शामिल लोग को छोड़ दें, तो हम जैसे कई पढ़े लिखे लोग, अपने घरो और फक्ट्रियों में बच्चो से जबरन काम करा रहे है. हमारा देश तो ऐसा है, जिसमें बच्चों को भगवान रूप माना जाता है और अपने भगवान के साथ ऐसा दुर्यवव्हार कोई कैसे कर सकता है? सोचना होगा ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए सरकार या समाज, क्योंकि इस स्थिति के दोनों बराबर के भागीदार नज़र आ रहे है।
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