बिहार में शराब या शराब में बिहार एक ऐसी लाइन है, जो हर किसी के लिए समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, ठीक उस तरह ही जैसे बिहार पुलिस का शराब पीने वाले को पकड़ना, बजाए उनके जो शराब बेच रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से बिहार में शराब का सेवन करने वालों की धरपकड़ शुरू हुई है और इसके लिए सरकारी ड्रामा भी हुआ यानी प्रतिज्ञा भी ली गई, हालांकि इसके बाद ही शराब नहीं पीने की कसम खाने वाले वर्दीधारी भी खुद को रोक नहीं सकें और उस गले को शराब से तर करने में जुट गए, जिस से प्रतिज्ञा के बोल निकलें थे.
सवाल से बचते मुख्यमंत्री
खैर हम भी कहाँ पीने वालों पर सवाल करने में जुट गए, उनको भला कौन रोक सकता है! लेकिन अब सवाल ये उठता है कि दिन के उजालों से लेकर रात के अंधेरों में मधुशाला का जाम छलकाने वाले महा-मनुष्यों को ऐसा महा-रस किस महारथी के महारत से मुहैया होता है या यूँ कह लें कि किस 'माननीय' के मान में इसको मान्यता मिल रही है?
वैसे तो इसका जवाब देने में प्रदेश के मुखिया नीतीश कुमार भी बगल झाँकने लगते हैं और फिर वही पुरानी घिसी हुई लाइन दोहराते हुए अधिकारीयों पर इलज़ाम लगा कर बच निकलते हैं. लेकिन असल मायनों में देखा जाए तो सुशासन बाबू ही बिहार को शराबी बनाने के ज़िम्मेदार है, थोडा या ज्यादा वो आप आकंड़ों से अंदाज़ा लगा सकते है.
क्या कहते हैं आंकड़े
इन सवालों के जवाब के लिए हमे कुछ 15 साल पीछे चलना होगा, यानी साल 2005, जब सुशासन बाबू की सरकार सत्ता में आई और उन्होंने सरकार की शराब नीति को उदार किया. इसके नतीजे में जहां सरकार के राजस्व में बेतहाशा वद्धि दर्ज हुई, वहीं शराब की दुकानों का ऐसा जाल बनकर तैयार हुआ कि चाह कर भी उसका खत्म करना लगभग नामुमकिन सा हो गया. इधर हर तरफ मयखानों में जाम छलकने लगे और उधर सरकारी खजाने भरे जाने लगे और नेताओं की जेबें भी गर्म हुई.
आम ज़िन्दगी पर असर
वहीँ धीरे-धीरे ही सही लेकिन नीतीश बाबू की इस नीति का लोगों की निजी ज़िन्दगी पर असर पड़ने लगा खासकर महिलाओं पर इसका अधिक प्रभाव पड़ने लगा और एक दिन आना ही था, जब लोगों का गुस्सा फूटना तय था और ऐसा हुआ भी, जब शराब की इस उपलब्धता और गांव के स्तर पर भी शराब की भठ्ठी खुलने के चलते राज्य में विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया.
'नीतीश' की बदलती नीति
राज्य में शराब को लेकर विरोध प्रदर्शनों का असर सुशासन बाबू की सरकार पर पड़ने लगा और आखिरकर नीतीश सरकार को शराबबंदी का फैसला लेना पड़ा और कई लोगों ने इसकी तारीफ की, तो कुछ ने इसकी आलोचना की, लेकिन कुल मिलाकर अब ये क़ानून एक हकीकत बन चुका था.
क्या है असल मुद्दा
बिहार में शराबबंदी के बाद ही असली खेल शुरू हुआ, जहाँ महिलाओं को ढाल बना कर नीतीश कुमार हर मौकों पर उनकी मांग पर ऐसे कानून को बनाने की बात कहते रहते हैं, वहीँ असल मुद्दे को वह भूल जाते हैं या याद नहीं करना चाहते हैं.
बिहार की महिलाओं का असल मुद्दा है गाँव में देशी शराबों की भट्टियों को खत्म होना, जो आज भी किसी न किसी तरीके चल रही हैं या चलवाई जा रही हैं. कुछ महीने पहले जारी हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 के मुताबिक़ क़ानूनी तौर पर ड्राइ स्टेट बिहार में महाराष्ट्र की तुलना में शराब का उपभोग ज़्यादा हो रहा है
वहीँ नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016 में बिहार में 496.3 किलो गांजा ज़ब्त हुआ था. साल 2017 के फ़रवरी माह तक ये आंकड़ा 6884.47 किलो तक जा चुका था. BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार शुरुआती दौर में जहां गांजा बड़ी चुनौती था वहां अब स्मैक नई परेशानी है. पटना में 1989 से दिशा नशा मुक्ति केन्द्र चला रहीं राखी शर्मा बताती हैं, "गांजा से बड़ी चुनौती स्मैक है. स्नॉट करने की प्रवृत्ति बढ़ी है. स्मैक महंगी है इसलिए लोग उसे ख़रीदने के लिए ख़ून तक बेच रहे हैं."
इन आंकड़ों पर भी होनी चाहिए नज़र
शराब के सेवन की बात की जाए, तो शहरी क्षेत्रों में पुरुषों के बीच 15 साल से ऊपर के आयु वर्ग के 14 फ़ीसद लोग इसका सेवन करते हैं. ग्रामीण इलाक़ों में ये 15.8 फ़ीसदी है. वहीं महिलाओं में शहरी क्षेत्रों में ये आंकड़ा 0.5 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में 0.4 फ़ीसद का है.
राज्य के पुलिस मुख्यालय के आंकड़े देखें तो इस साल अक्टूबर 2021 तक 38,72,645 लीटर शराब ज़ब्त की गई है. इनमें 1,590 राज्य के बाहर के लोगों समेत 62,140 गिरफ़्तार किए गए हैं जबकि 12,200 वाहनों को ज़ब्त किया गया है. सबसे ज़्यादा शराब वैशाली ज़िले में ज़ब्त हुई. गिरफ़्तारियां सबसे अधिक पटना में दर्ज हुईं. (BBC की रिपोर्ट के अनुसार)
वहीँ एक आंकड़ा ऐसा है जो दिखता है कि कानून के रखवाले ही इस क़ानून को कबूल करने के लिए तैयार नहीं है, बता दें कि शराबबंदी क़ानून बनने के बाद अब तक इसके तहत 3 लाख से ज़्यादा गिरफ्तारियां हो चुकी है और 700 से ज़्यादा कर्मचारियों (पुलिस और उत्पाद विभाग) को बर्खास्त किए जा चुके है.
शराबबंदी के बाद किये एक गए अध्ययन के मुताबिक इस कानून के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा (मानसिक, शाब्दिक, शारीरिक, आर्थिक, यौन) घटी हैं. इसके अलावा परिवार का खान पान पर व्यय 1,005 रुपये से बढ़कर 1,331 रुपये हो गया है. दूध से बने उत्पादों की खपत में 17.5 फ़ीसद की वृद्धि दर्ज हुई. इसके अलावा बलात्कार, हत्या, सड़क दुर्घटना, दंगा, डकैती घटी हैं. ये स्टडीनवादा, पूर्णिया, समस्तीपुर, पश्चिम चंपारण और कैमूर के 20 गांव पर की गई थी.
मुख्यमंत्री की दावों की हकीकत
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई मौकों पर दावा करते हुए नज़र आये है कि बिहार में अवैध शराब कारोबारियों पर नकेल कसी गई है, लेकिन कानून बनने के लगभग 5 साल बाद भी जमीनी हकीकत कुछ और है, वो यह है कि राज्य की ज़मीन पर देशी और विदेशी दोनों ही तरह की शराब बन रही है.
सिवान, मुज़फ़्फ़रपुर, गोपालगंज, पश्चिमी चंपारण, समस्तीपुर में हाल में ज़हरीली शराब से हुई मौतें इसका एक छोटा उदाहरण हैं. किसको नहीं याद है, जब ज़हरीली शराब पीने के चलते सिर्फ़ गोपालगंज के खजूरबन्नी में ही अगस्त 2016 में छह लोगों की आंख की रोशनी चली गई थी. सिर्फ हाल के आंकड़ों की बात करें, तो नवंबर 2021 के पहले 10 दिनों में ही जहरीली शराब के पीने से बिहार के अलग अलग इलाकों में 24 लोगों की मौत हो गई थी.
हालांकि ऐसे आंकड़े मुख्यमंत्री नीतीश को सार्वजनिक तौर पर और भी ज़्यादा आक्रामक बना रहे हैं. हाल ही में उन्होंने बयान दिया था, "जो गड़बड़ चीज़ पिएगा, वो इसी तरह जाएगा." वहीँ 16 नवंबर को 7 घंटे की मैराथन बैठक के बाद उन्होंने यहीं दोहराया कि "न राज्य में शराब आने देंगे और न ही किसी को शराब पीने देंगे."मुख्यमंत्री के दावे और ज़मीनी हकीकत का अंदाज़ा आपको आंकड़ो से लग ही गया होगा.
असल ज़िम्मेदार कौन?
सवाल ये भी है कि अगर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके सहयोगियों को पूरी तरह से दोषी ठहरा दिया जाए, तो उन अधिकारीयों को कैसे मुक्त किया जा सकता है, जिनको इस शराबबंदी कानून का पालन कराने का आदेश और ज़िम्मेदारी मिली है, लेकिन अगर सब कुछ इन सरकारी नौकरशाह पर थोपा गया फिर आम आदमी की अपने समाज के प्रति ज़िम्मेदारी शून्य कैसे हो सकती है?
ऐसे में एक बार फिर सीधे तौर पर किसी को ज़िम्मेदार बनाना मुश्किल है, लेकिन कुल मिलाकर ये नज़र आता है कि सत्ता में बैठी सरकार से लेकर सरकारी नौकर और आम नागरिक तक हर कोई अपनी ज़िम्मेदारी में कहीं न कहीं इस तरह की चूक कर रहा है, जिसके वजह से ये परिस्थिति हमारे सामने आई है और धीरे धीरे ये एक भयंकर बीमारी का रूप ले चुकी है, ऐसे में किस स्तर पर किसकी क्या ज़िम्मेदारी बनती है, वो वक़्त रहते है याद दिलाना होगा.
(अहराज़ अहमद)
Good 👍
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