सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्या उत्तर प्रदेश चुनाव में काशी- मथुरा बन सकेंगे चुनावी मुद्दा ! तो मुसलमानों का वोट किसको ?

"अयोध्या हुई हमारीअब काशी-मथुरा की बारी" जैसे कई अलग- अलग नारों से इस बार उत्तर प्रदेश चुनाव को एक नया रंग दिया जा रहा है, कभी कब्रिस्तान, कभी श्मशान, तो किसी के राम, तो किसी के परशुराम, उनकी जाति वाले के वहां छापेमारी, पंडित जी की यादव से यारी, ठाकुर सत्ताधारी, दलित चुनाव के समय चढ़ने वाली खुमारी, पिछड़ी ना चाह कर भी याद आ जाने वाली.... और ना जाने कौन-कौन से समीकरणों से उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ा जा रहा है. लेकिन हम यहाँ कुछ समीकरणों की बात करते हैं, जो पिछले चुनाव से मेल भी खाते हैं फिर भी कारगर नहीं दिख रहे है.


यूपी इलेक्शन में इस बार धर्म को एक अलग पहचान मिली है, सभी राजनीतिक पार्टियाँ जाति के समीकरण के साथ ही साथ एक ख़ास धर्म के एंगल से चुनाव को जीतने में जुटी है. इसकी अनेकों वजहें है लेकिन उत्तर प्रदेश में एक मुद्दे को सबसे बड़ा बनाने की कोशिश चल रही है, वो ये है कि अयोध्या के बाद मथुरा में मंदिर निर्माण कराने का वादा करना और इसके नाम पर वोट बटोरना, लेकिन इस बार परिस्थिति बदली हुई नज़र आ रही है.

हालांकि यह एजेंडा भारतीय जनता पार्टी के तरफ से लाया गया है लेकिन दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इस मुद्दे पर जवाब देने से कतरा रहीं है, वजह ये भी है कि वह सभी दल एक विशेष धर्म की पहचान बना कर चुनाव लड़ने की कोशिश में जुटे हुए हैं, जिसके बाद इस मुद्दे पर बीजेपी पर हमला करना, खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा. 

वहीँ इस बार के चुनाव में कोई भी राजनीतिक पार्टी खुद को मुस्लिमों के मसीहा के तौर पर पेश करने की गलती से भी गलती नहीं कर रहीं हैं. वहीँ एक पैटर्न ये भी नज़र आ रहा है कि मुख्य विपक्षी दल खासकर समाजवादी पार्टी इस बार मुसलमानों के मुद्दे पर खुल कर बोलने से परहेज़ कर रही है, जिसका फायदा ऐसे भी होते नज़र आ रहा है कि जिस सपा पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगता आया था, वह अब हिन्दुओं के बीच एक अलग पहचान बना रही है.

ऐसे में सवाल ये उठता है कि हिंदुत्व की पहचान के साथ चुनाव लड़ना कितना फायदेमंद होगा, वहीँ इसके साथ ही मुसलामानों को वोट बैंक मानने वाली पार्टियाँ अब कौन सी रणनीति अपनाने के बारे में सोच रही हैं? 

क्या काशी-मथुरा एक मुद्दा बन सकता है?

चुनाव में कब-कौन सी चीज़ मुद्दा बन जाए और कब एक बड़े मुद्दे का महत्व कम हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता,  कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में होते हुए दिख रहा है, जहाँ एक तरफ सभी विपक्षी राजनीतिक पार्टियाँ  हिंदुत्व के पहचान के साथ चुनाव में लड़ने की कोशिश करने में जुटी हुईं है, वहीँ सत्ताधारी पार्टी बीजेपी अपने पुराने रंग को बरक़रार रखते हुए दूसरी पार्टियों को भी इस तरह की राजनीति करने पर मजबूर कर रही है. 

हालांकि जैसा कहा जाता है कि कई बार ख़ामोशी में बेहतरी होती है, कुछ इसी रणनीति के साथ विपक्षी पार्टियाँ आगे बढ़ रही है. जिसका लाभ भी मिलते नज़र आ रहा है, जिसका एक उदहारण ये है कि अखिल भारत हिंदू महासभा ने शाही ईदगाह मस्जिद के अंदर कृष्ण की मूर्ति स्थापित करने के अपने आह्वान को चुपचाप वापस ले लिया।

इसका एक और उदहारण ये भी कि उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या का ट्वीट "अयोध्या काशी भव्य मंदिर निर्माण जारी है मथुरा की तैयारी है' वह तूफान पैदा नहीं कर सका जिसकी उन्हें उम्मीद थी और महासभा के फैसले पर कोई मामूली प्रतिक्रिया भी नहीं हुई।

मथुरा और काशी में क्या है मुश्किलें?

मथुरा और काशी दोनों धर्मस्थलों से जुड़े विवाद पहले से ही अदालत में हैं और उन पर फैसला आने में कई साल लग सकते हैं। इस बीच, वाराणसी में, 13 दिसंबर को भव्य काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के उद्घाटन ने ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे को ध्यान से हटा दिया है।

काशी के मुद्दे को लेकर 73 वर्षीय पुजारी पंडित राम नारायण आचार्य ने कहा, "काशी विश्वनाथ मंदिर ने पहले ही एक नया गौरव और भव्यता प्राप्त कर ली है। मंदिर अपने आप में एक भव्य इकाई है, इसलिए इलाके मस्जिद की उपस्थिति हमें प्रभावित नहीं करती है।" 

वाराणसी के अधिकांश निवासी अब मानते हैं कि ज्ञानवापी विवाद को उठाने से कोई उद्देश्य नहीं होगा क्योंकि नवीनीकरण के बाद 'मंदिर का अपना स्थान और महत्व' है। वहीँ मथुरा और काशी दोनों ही पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के दायरे में आते हैं, जो स्वतंत्रता के समय धार्मिक स्थलों के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने का प्रयास करता है।

यदि मथुरा और काशी की मुक्ति के लिए अभियान चलाया जाता है तो केंद्र सरकार को अधिनियम को निरस्त करना होगा और यह सामाजिक और राजनीतिक रूप से आसान काम नहीं होगा।

अयोध्या से अलग है मथुरा और काशी का मुद्दा

एक बड़ी वजह जो अयोध्या को मथुरा और काशी से अलग करता है, वह यह है कि अयोध्या आंदोलन की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और उसके नेताओं द्वारा की गई थी, जिसमें अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया शामिल थे।

दोनों नेताओं ने मंदिर के लिए अभियान को जन आंदोलन में बदलने में कामयाबी हासिल की थी और राम मंदिर के लिए विहिप द्वारा आयोजित सभी कार्यक्रमों में आम आदमी की सक्रिय भागीदारी स्पष्ट थी।

काशी और मथुरा के आह्वान में विहिप की सक्रिय भागीदारी नहीं है, हालांकि कुछ नेताओं ने इसके बारे में बेतरतीब ढंग से बात की है।

इसके अलावा, यहां तक ​​कि वर्तमान विहिप नेतृत्व भी सिंघल और तोगड़िया की तरह आक्रामक नहीं है और इन दोनों मंदिरों के लिए समान जुनून पैदा करने में सक्षम नहीं हो सकता है। ऐसा लगता है कि विहिप भी ऐसा करने में पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखा रही है।

पुजारियों के शीर्ष निकाय अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने अक्टूबर 2019 में घोषणा की थी कि वह जल्द ही मथुरा और वाराणसी में मस्जिदों को ध्वस्त करने के लिए एक आंदोलन शुरूकरेगा, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ है।

भाजपा, जो अयोध्या आंदोलन के कारण देश में प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनने के लिए प्रेरित हुई थीतो ऐसा लगता है कि काशी और मथुरा के मुद्दों को आगे बढ़ाने में भी बहुत दिलचस्पी नहीं है।

मुसलमानों का वोट किसको और क्यों?

मुस्लिमों के वोट को लेकर इस बार राजनीति कुछ अलग तरीके से चल रही है, जहाँ भाजपा कई मौकों पर स्पष्ट तौर पर मुस्लिम वोट में किसी तरह की दिलचस्पी नहीं होने की बात करती आई है, वहीँ समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव खुले तौर पर इस बार मुसलमानों के मुद्दों पर बात करने से कतराते हुए नज़र आ रहे हैं, लेकिन पार्टी में एक बड़े पैमाने में मुस्लिम नेताओं को टिकट देना अखिलेश की मुस्लिमवोटों की तमन्ना को भी ज़ाहिर करता है.

बसपा प्रमुख मायावती इस बार के चुनाव में अपनी पार्टी की तरह ही हाशिये पर नज़र आ रही है, इसलिए उनके चुनावी मुद्दे पर बात करना बेमानी जैसा होगा, हालांकि कांग्रेस की रणनीति भी मुस्लिम वोटर को लेकर कुछ ख़ास नहीं है, क्योंकि पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी ने इस बार महिलाओं के मुद्दे को अहमियत दी है, जिसकी एक अलग अहमियत है.

मुसलामानों मतदातओं को लेकर स्वतंत्र विश्लेषक राहुल वर्मा कहते हैं कि "सपा को यूपी में मुसलमानों से बहुमत मिल रहा है। 2022 के विधानसभा चुनाव में बाइपोलर होने की संभावना है, यानी मुख्य मुकाबला भाजपा के नेतृत्व वाले और सपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों तक ही सीमित होगा।

बसपा सहित अन्य राजनीतिक पार्टियों के हाशिये पर जाने के साथ, यह आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर सपा को 75 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम वोट मिले। मेरे विचार में, एआईएमआईएम और पीस पार्टी दोनों की मुसलमानों के बीच मामूली उपस्थिति होगी। ”

मुस्लिम दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक ब्लॉक है और मोटे तौर पर अनुमान है कि उनकी आबादी 20 प्रतिशत है, लेकिन 2017 के चुनावों में, वह विभाजित हो गए और बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग द्वारा समर्थित हिंदुत्व की मजबूती पर सवार होकर चुनावों में जीत हासिल की।

उनकी विशाल आबादी के बावजूद, 2017 में केवल 23 मुस्लिम विधायक चुने गए, जबकि सबसे अधिक संख्या 2002 में 64 थी। ऐसे में इस बार के चुनाव में मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न से आने वाले दिनों में मुस्लिम समाज के मुद्दों को समझना आसान हो जायेगा।

क्या संदेश दे रही जनता

जनता का संदेश तो ईवीएम के ज़रिए मतगणना के दिन आता है, लेकिन चुनावी माहौल में कई बार ऐसे इशारे भी सामने आते हैं, जिसकी सुगबुगाहट से अंदाज़ा लगाना मुमकिन हो जाता है कि बयार किस रूख चलेगी. ऐसा ही कुछ इशारा भारतीय जनता पार्टी को मिल चुका है. 

जाहिर हैमथुरा की 'मुक्तिको लोगों का समर्थन नहीं मिल पाया है और यही एक कारण था कि महासभा ने अपने कदम पीछे खींच लिए, जिसकी वजह से सत्ता में बैठी बीजेपी के लिए एक बड़ा संदेश मिला कि उनके इस मुद्दे में वह धार नहीं, जो लोगों को वोट बैंक में बदल सके.

वहीँ विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियों के लिए यह किसी अमृत से कम भी नहीं था कि ऐसे मुद्दे पर लोगों कि वह प्रतिक्रिया सामने नहीं आई, जिसका सत्ता दल इंतेज़ार कर रहा था. 

मंदिर के मुद्दे पर बात करते हुए लोगों ने कहा कि "हम सद्भाव से रहना चाहते हैं और अगर हमारे मंदिरों को परेशान नहीं किया जाता हैतो हम निश्चित रूप से ऐसे मुद्दों पर कोई परेशानी नहीं चाहते हैं। मथुरा के लोग निश्चित रूप से किसी भी समुदाय के साथ संघर्ष की उम्मीद नहीं कर रहे हैं।" 

ऐसे में माना जा सकता है की स्पष्ट रूप से लोग ऐसे मुद्दों से आगे बढ़ गए हैं और बेहतर कल पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैंइसलिए काशी और मथुरा जैसे मुद्दों के चुनावी मुद्दों में बदलने की संभावना नहीं के बराबर है, लेकिन फिर वहीँ बात आ जाती है कि चुनाव में कब-कौन सी चीज़ मुद्दा बन जाए और कब एक बड़े मुद्दे का महत्व कम हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

5 Effective Strategies for Marketing Yourself Without Spending Money

 There are several ways to market yourself without paying anything in return. Here are some effective strategies: Start a Blog: Starting a blog is one of the most effective ways to market yourself for free. You can share your knowledge, expertise, and opinions on your blog. This helps to establish yourself as an authority in your field, and can also help to attract a loyal following. Social Media Marketing: Social media platforms such as Facebook, Twitter, Instagram, and LinkedIn are great tools for marketing yourself. You can use them to share your content, engage with your followers, and build your brand. Guest Blogging: Guest blogging is a great way to market yourself and your brand. You can write for other blogs in your niche and include a link back to your website or blog in your author bio. Networking: Networking is an important part of marketing yourself. Attend industry events, connect with other professionals in your field, and engage with others on social media. Email Mar...

"Step-by-Step Instruction for Launching Your Own Blog: From Choosing a Platform to Promoting Your Content

Starting a blog is a great way to express your thoughts, share your expertise, or simply connect with others. Whether you're starting a personal blog or a professional one, it's a simple and affordable way to get your voice out there on the internet. Here's a step-by-step guide on how to start a blog: Choose a blog platform: There are many different blog platforms to choose from, but the most popular are WordPress, Blogger, and Wix. Each platform has its own strengths and weaknesses, so research each one to determine which is the best fit for your needs. Pick a domain name: Your domain name is the web address people will use to access your blog. Choose a domain name that is memorable, easy to spell, and relevant to your blog's topic. If your desired domain name is already taken, try adding a different word or phrase to make it unique. Get web hosting: Web hosting is the service that allows your blog to be accessible on the internet. You can purchase web hosting from com...

10 amazing facts about the Indian Railways you should know

 The Indian Railways is one of the largest railway networks in the world, with a rich history and many interesting facts. Here are some amazing facts about the Indian Railways: The first passenger train in India ran between Bombay (now Mumbai) and Thane on 16th April 1853. The Indian Railways has the world's fourth-largest railway network, covering over 67,000 km of track. The railway system in India is operated by the government-owned Indian Railways, which is the country's largest employer with over 1.3 million employees. The Indian Railways carries over 23 million passengers every day, which is equivalent to the population of Australia. The Nilgiri Mountain Railway in Tamil Nadu is one of the steepest railways in the world, with a gradient of 8.33 %. The Darjeeling Himalayan Railway, also known as the "Toy Train," is a UNESCO World Heritage Site and is famous for its narrow gauge tracks and scenic views. The Indian Railways also operates the Palace on Wheels, a lux...